Hindi Typing Test - प्रदोष व्रत कथा
Hindi Typing Test
प्रदोष व्रत का महात्म्य
प्रदोष अथवा त्रयोदशी का व्रत मनुष्य को संतोषी व सुखी बनाता है। इस व्रत से सम्पूर्ण पापों का नाश होता है। इस व्रत के प्रभाव से विधवा स्त्री अधर्म से दूर रहती है और विवाहित स्त्रियों का सुहाग अटल रहता है। वार के अनुसार जो व्रत किया जाए तदनुसार ही फल प्राप्त होता है। सूत जी के कथनानुसार त्रयोदशी का व्रत करने वाले को सौ गायदान करने का फल प्राप्त होता है।
उद्यापन विधिविधान से इस व्रत को करने पर सभी कष्ट दूर होते है और इच्छित वस्तु की प्राप्ति होती है। धर्मालुओं को ग्यारह त्रयोदशी अथवा वर्ष भर की 26 त्रयोदशी करने के उपरान्त उद्यापन करना चाहिए।
प्रदोष व्रत विधि
ब्रघ्मुहूर्त में उठकर नित्यकर्मों से निवृघ हो भगवान शंकर का स्मरण करें। निराहार रहे। सायंकाल सूर्यास्त से एक घण्टा पूर्व स्नानादि कर्मों से निवृघ हो श्वेत वस्त्र धारण करें। पूजन स्थल को स्वच्छ जल और गाय के गोबर से लीपकर मंडप को भलीभांति सजाकर पांच रंगो को मिलाकर पद्म पुष्प की आस्ति बनाकर कुशा के आसन पर उत्तरपूर्व दिशा की ओर मुख करके बैठें और शंकर भगवान का पूजन करें।
ओम् नमः शिवायः इस पंचाक्षर मन्त्र का जाप करते हुए जल चढ़ावें और ऋतुफल अर्पित करें। जल चढ़ाते समय इस बात का विघेष ध्यान रखें कि जलधारा नहीं टूटे। इसी प्रकार मंत्र का जल लयबद्ध हो। जल चढ़ाते समय यदि आंखे खुली हुई हैं तो दृष्टि जलधारा पर टिकी हो और यदि भाव में आंखे मुंद गयी हों ध्यान जप के शब्दों अर्थो के साथ चल रहा हो।
रवि त्रयोदशी प्रदोष व्रत कथा
दोहा:
आयु बुद्धि आरोग्यता या चाहो सन्तान।
शिव पूजन विधिवत् करो दुःख हरे भगवान।।
किसी समय सभी प्राणियों के हितार्थं परम् पुनीत गंगा के तट पर ऋषि समाज द्वारा एक विशाल सभा का आयोजन किया गया जिसमें व्यास जी के परम् प्रिय शिष्य पुराणवेशा सूत जी को दण्ड़वत् प्रणाम किया। सूत जी ने भक्ति भाव से ऋषिमुनिगण को आशीर्वाद दे अपना स्थान ग्रहण किया।
ऋषिगण ने विनीत भाव से पूछा हे परम् दयालु! कलियुग में शंकर भगवान की भक्ति किस आराधना द्वारा उपलब्ध होगी कलियुग में जब मनुष्य पाप कर्म में लिप्त हो वेदशास्त्र से विमुख रहेंगे। दीनजन अनेक कष्टों से त्रस्त रहेंगे।
हे मुनि श्रेष्ठ! कलियुग में सत्कर्म में किसी की रूचि न होगी पुण्य क्षीण हो जाएंगे एवं मनुष्य स्वतः ही असत् कर्मो की ओर प्रेरित होगा। इस पृथ्वी पर तब ज्ञानी मनुष्य का कर्तव्य हो जाएगा कि वह पथ से विचलित मनुष्य का मार्ग दर्घन करे अतः हे महामुने! ऐसा कौनसा उघम व्रत है जिसे करने से मनवांछित फल की प्राप्ति हो और कलिकाल के पाप शान्त हो जाएं।
सूत जी बोले हे शौनकादि ऋषिगण आप धन्यवाद के पात्र है। आपके विचार प्रघंसनीय व जनकल्याणकारी है। आपके हृदय में सदा परहित की भावना रहती है आप धन्य हैं।
हे शौनकादि ऋषिगण! मैं उस व्रत का वर्णन करने जा रहा हूं जिसे करने से सब पाप और कष्ट नष्ट हो जाते है तथा जो धन वृद्धिकारक सुख प्रदायक सन्तान व मनवांछित फल प्रदान करने वाला है। इसे भगवान शंकर ने सती जी को सुनाया था।
सूत जी आगे बोले आयु वृद्धि व स्वास्थ्य लाभ हेतु रवि त्रयोदशी प्रदोष का व्रत करें। इसमें प्रातः स्नान कर निराहार रहकर शिव जी का मनन करें। मन्दिर जाकर शिव आराधना करें। माथे पर त्रिपुण्ड धारण कर बेल धूप दीप अक्षत व ऋतु फल अर्पित करें। रूद्राक्ष की माला से सामर्थ्यानुसार ओउम् नमः शिवाय जपें। ब्राह्मन को भोजन कराएं और दानदक्षिणा दें तत्पघ्चात् मौन व्रत धारण करे।
संभव हो तो यज्ञ हवन कराएं। ओं ट्टीं क्लीं नमः शिवाय स्वाहा मंत्र से यज्ञस्तुति दें। इससे अभीष्ट फल की प्राप्ति होती है। प्रदोष व्रत में व्रती एक बार भोजन करे और पृथ्वी पर शयन करे। इससे सर्व कार्य सिद्ध होते है।
श्रावण मास में इस व्रत का विशेष महत्व
श्रावण मास में इस व्रत का विशेष महत्व है। सभी मनोरथ इस व्रत को करने से पूर्ण हो जाते है। हे ऋषिगण! यह व्रत जिसका वृतांन्त मैंने सुनाया किसी समय शंकर भगवान ने सती जी को और वेदव्यास मुनि ने मुझे सुनाया था।
व्रत कथा
एक ग्राम में एक दीनहीन ब्राह्मन रहता था। उसकी धर्मनिष्ठ पत्नी प्रदोष व्रत करती थी। उनके एक पुत्र था। एक बार वह पुत्र गंगा स्नान को गया। दुर्भाग्यवश मार्ग में उसे चोरों ने घेर लिया और डराकर उससे पूछने लगे कि उसके पिता का गुप्त धन कहां रखा है। बालक ने दीनतापूर्वक बताया कि वे अत्यन्त निर्धन और दुःखी हैं। उनके पास गुप्त धन कहां से आया।
चोरों ने उसकी हालत पर तरस खाकर उसको छोड़ दिया। बालक अपनी राह पर हो लिया, चलते-चलते वह थककर चूर हो गया और बरगद के एक वृक्ष के नीचे सो गया। तभी उस नगर के सिपाही चोरों को खोजते हुए उसी ओर आ निकले। उन्होंने ब्राह्मन बालक को चोर समझकर बन्दी बना लिया और राजा के सामने उपस्थित किया।
राजा ने उसकी बात सुने बगैर उसे कारावास में डलवा दिया। उधर बालक की माता प्रदोष व्रत कर रही थी। उसी रात्रि राजा को स्वप्न आया कि वह बालक निर्दोष है। यदि उसे नहीं छोड़ा गया तो तुम्हारा राज्य और वैभव नष्ट हो जाएगा। सुबह जागते ही राजा ने बालक को बुलवाया। बालक ने राजा को सच्चाई बताई।
राजा ने उसके माता-पिता को दरबार में बुलवाया। उन्हें भयभीत देख राजा ने मुस्कराते हुए कहा, "तुम्हारा बालक निर्दोष और निडर है। तुम्हारी दरिद्रता के कारण हम तुम्हें पांच गांव दान में देते हैं।" इस तरह ब्राह्मन आनन्द से रहने लगा। शिव जी की दया से उसकी दरिद्रता दूर हो गई।
सोम त्रयोदशी प्रदोष व्रत
उक्त कथा सुनने के बाद शौनकादि ऋषि बोले, "हे दयालु! कृपया अब आप सोम त्रयोदशी प्रदोष व्रत के बारे में बताइए।"
सूत जी बताने लगे, "सोम त्रयोदशी प्रदोष व्रत से शिवपार्वती प्रसन्न होते हैं। व्रत के समस्त मनोरथ पूर्ण होते हैं।"
व्रत कथा
एक नगर में एक ब्राह्मणी रहती थी। उसके पति का स्वर्गवास हो गया था। उसका अब कोई आश्रयदाता नहीं था, इसलिए प्रातः होते ही वह अपने पुत्र के साथ भीख मांगने निकल पड़ती थी। भिक्षाटन से ही वह स्वयं और पुत्र का पेट पालती थी। एक दिन ब्राह्मणी घर लौट रही थी तो एक लड़का शायल अवस्था में कराहता हुआ मिला। ब्राह्मणी दयावश उसे अपने घर ले आई।
वह लड़का विदर्भ का राजकुमार था। शत्रु सैनिकों ने उसके राज्य पर आक्रमण कर उसके पिता को बंदी बना लिया था और राज्य पर नियंत्रण कर लिया था, इसलिए वह मारामारी कर रहा था। राजकुमार ब्राह्मणपुत्र के साथ ब्राह्मणी के घर रहने लगा। एक दिन अंघुमति नामक एक गंधर्व कन्या ने राजकुमार को देखा और उस पर मोहित हो गई। अगले दिन अंघुमति अपने माता-पिता को राजकुमार से मिलाने लाई। उन्हें भी राजकुमार भा गया।
कुछ दिनों बाद अंघुमति के माता-पिता को शंकर भगवान ने स्वप्न में आदेश दिया कि राजकुमार और अंघुमति का विवाह कर दिया जाए। उन्होंने वैसा ही किया। ब्राह्मणी प्रदोष व्रत करती थी। उसके व्रत के प्रभाव और गंधर्वराज की सेना की सहायता से राजकुमार ने विदर्भ से शत्रुओं को खदेड़ दिया और पिता के राज्य को पुनः प्राप्त कर आनन्दपूर्वक रहने लगा।
राजकुमार ने ब्राह्मणीपुत्र को अपना प्रधानमंत्री बनाया। ब्राह्मणी के प्रदोष व्रत के महात्म्य से जैसे राजकुमार और ब्राह्मणपुत्र के दिन फिरे, वैसे ही शंकर भगवान अपने दूसरे भक्तों के दिन भी फेरते हैं।
मंगल त्रयोदशी प्रदोष व्रत
सूत जी बताते हैं, मंगल त्रयोदशी प्रदोष व्रत व्याधियों का नाश करता है। ऋण से मुक्ति प्रदान करता है, सुखशान्ति और श्रीवृद्धि करता है।
व्रत कथा
एक नगर में एक वृद्धा निवास करती थी। उसके मंगलिया नामक एक पुत्र था। वृद्धा की हनुमान जी पर गहरी आस्था थी। वह प्रत्येक मंगलवार को नियमपूर्वक व्रत रखकर हनुमान जी की आराधना करती थी। उस दिन वह न तो घर लीपती थी और न ही मिट्टी खोदती थी। वृद्धा को व्रत करते हुए अनेक दिन बीत गए।
एक बार हनुमान जी ने उसकी श्रद्धा की परीक्षा लेने की सोची। हनुमान जी साधु का वेग धारण कर वहां गए और पुकारने लगे, "हे कोई हनुमान भक्त, जो हमारी इच्छा पूर्ण करें!" पुकार सुनकर वृद्धा बाहर आई और बोली, "आज्ञा महाराज!" साधु वेशधारी हनुमान ने कहा, "मैं भूखा हूं, भोजन करूंगा। तू थोड़ी जमीन लीप दे।"
वृद्धा दुविधा में पड़ गई। अंततः हाथ जोड़कर बोली, "महाराज! लीपने और मिट्टी खोदने के अतिरिक्त आप कोई दूसरी आज्ञा दें, मैं अवश्य पूर्ण करूंगी।" साधु ने तीन बार प्रतिज्ञा कराने के बाद कहा, "तू अपने बेटे को बुला। मैं उसकी पीठ पर आग जलाकर भोजन बनाऊंगा।"
वृद्धा के पैरों तले धरती खिसक गई, परंतु वह प्रतिज्ञाबद्ध थी। उसने मंगलिया को बुलाकर साधु के सुपुर्द कर दिया। मगर साधु रूपी हनुमान जी ऐसे ही मानने वाले न थे। उन्होंने वृद्धा के हाथों से ही मंगलिया को पेट के बल लिटवाया और उसकी पीठ पर आग जलवाई।
आग जलाकर दुखी मन से वृद्धा अपने घर के अंदर चली गई। इधर भोजन बनाकर साधु ने वृद्धा को बुलाकर कहा, "मंगलिया को पुकारो ताकि वह भी आकर भोग लगा ले।" इस पर वृद्धा बहते आंसुओं को पोंछकर बोली, "उसका नाम लेकर मुझे और कष्ट न पहुंचाओ।" लेकिन जब साधु महाराज नहीं माने तो वृद्धा ने मंगलिया को आवाज लगाई।
पुकारने की देर थी कि मंगलिया दौड़ते-दौड़ते आ पहुंचा। मंगलिया को जीवित देख वृद्धा को सुखद आघ्चर्य हुआ। वह साधु के चरणों में गिर पड़ी। साधु अपने वास्तविक रूप में प्रकट हुए। हनुमान जी को अपने घर में देख वृद्धा का जीवन सफल हो गया।
सूत जी बोले, "मंगल प्रदोष व्रत से शंकर और हनुमान जी रूद्र हैं, और पार्वती जी इसी तरह भक्तों को साक्षात दर्शन देकर तार्थ करते हैं।"
बुध त्रयोदशी प्रदोष व्रत
सूत जी आगे बोले, बुध त्रयोदशी प्रदोष व्रत से सर्व कामनाएं पूर्ण होती हैं। इस व्रत में हरी वस्तुओं का प्रयोग करना चाहिए। शंकर भगवान की आराधना धूप, बेलपत्रादि से करनी चाहिए।
व्रत कथा
एक पुरुष का नया-नया विवाह हुआ। विवाह के दो दिनों बाद उसकी पत्नी मायके चली गई। कुछ दिनों बाद वह पुरुष पत्नी को लेने उसके यहां गया। बुधवार को जब वह पत्नी के साथ लौटने लगा तो ससुराल पक्ष ने उसे रोकने का प्रयत्न किया कि विदाई के लिए बुधवार शुभ नहीं होता। लेकिन वह नहीं माना और पत्नी के साथ चल पड़ा।
नगर के बाहर पहुँचने पर पत्नी को प्यास लगी। पुरुष लोटा लेकर पानी की तलाश में चल पड़ा। पत्नी एक पेड़ के नीचे बैठ गई। थोड़ी देर बाद पुरुष पानी लेकर वापस लौटा। उसने देखा कि उसकी पत्नी किसी के साथ हंस-हंसकर बातें कर रही थी और आघ्चर्य का कोई ठिकाना न रहा। उस आदमी की सूरत उसी की भांति थी।
पत्नी भी सोच में पड़ गई। दोनों पुरुष झगड़ने लगे। भीड़ इकट्ठी हो गई। सिपाही आ गए। हमशक्ल आदमियों को देख वे भी आश्चर्यचकित हो गए। उन्होंने स्त्री से पूछा, "तुम्हारा पति कौन है?" वह कर्तव्य विमूढ़ हो गई। तब वह पुरुष शंकर भगवान से प्रार्थना करने लगा, "हे भगवान! हमारी रक्षा करें। मुझसे बड़ी भूल हुई कि मैंने सास-श्वसुर की बात नहीं मानी और बुधवार को पत्नी को विदा करा लाया। मैं भविष्य में ऐसा कदापि नहीं करूंगा।"
जैसे ही उसकी प्रार्थना पूरी हुई, दूसरा पुरुष अन्तर्ध्यान हो गया। पति-पत्नी सकुशल अपने घर पहुंच गए। उस दिन के बाद से पतिव्रता पत्नी और वह पुरुष नियमपूर्वक बुध त्रयोदशी प्रदोष व्रत रखने लगे।
गुरू त्रयोदशी प्रदोष व्रत
सूत जी फिर बोले, शत्रु विनाशक, भक्ति प्रिय व्रत है यह अति श्रेष्ठ। वार मास तिथि सर्व से व्रत है यह अति ज्येष्ठ।
व्रत कथा
एक बार इन्द्र और वृत्रासुर की सेना में घनघोर युद्ध हुआ। देवताओं ने दैत्यसेना को पराजित कर नष्टभ्रष्ट कर डाला। यह देख वृत्रासुर अत्यन्त क्रोधित हो स्वयं युद्ध को उद्यत हुआ। आसुरी माया से उसने विकराल रूप धारण कर लिया। सभी देवता भयभीत हो गरू देव बृहस्पति की शरण में पहुंचे।
बृहस्पति महाराज बोले, "पहले मैं तुम्हें वृत्रासुर का वास्तविक परिचय दे दूं। वृत्रासुर बड़ा तपस्वी और कर्मनिष्ठ है। उसने गन्धमादन पर्वत पर घोर तपस्या कर शिव जी को प्रसन्न किया। पूर्व समय में वह चित्ररथ नाम का राजा था। एक बार वह अपने विमान से कैलाघ पर्वत चला गया। वहां शिव जी के वाम अंग में माता पार्वती को विराजमान देख वह उपहासपूर्वक बोला, 'हे प्रभो! मोहमाया में फंसे होने के कारण हम स्त्रियों के वशीभूत रहते हैं। किन्तु देवलोक में ऐसा दृष्टिगोचर नहीं हुआ कि स्त्री आलिंगनबद्ध हो सभा में बैठे।' चित्ररथ के यह वचन सुन सर्वव्यापी शिवशंकर हंसकर बोले, 'हे राजन! मेरा व्यावहारिक दृष्टिकोण पृथक है। मैंने मृत्युदाताकालकूट महाविष का पान किया है, फिर दृष्टिकोण पृथक है। मैंने मृत्युदाता कालकूट महाविष का पान किया है फिर दुष्टिकोण पृथक है। मैंने मृत्युदाताकालकूट महाविष पान किया है फिर भी तुम साधारणजन की भांति मेरा उपहास उड़ाते हो।'"
माता पार्वती क्रोधित हो चित्ररथ से संबोधित हुईं, "अरे दुष्ट! तूने सर्वव्यापी महेश्वर के साथ की मेरा भी उपहास उड़ाया है। अतएव मैं तुझे वह शिक्षा दूंगी कि फिर तू ऐसे संतों के उपहास का दुस्साहस नहीं करेगा। अब तू दैत्य स्वरूप धारण कर विमान से नीचे गिर। मैं तुझे शाप देती हूं।"
जगदम्बा भवानी के अभिशाप से चित्ररथ राक्षस योनि को प्राप्त हुआ। त्वष्टा नामक ऋषि के श्रेष्ठ तप से उत्तन्न होकर वह वृत्रासुर बना। गुरूदेव बृहस्पति आगे बोले, "वृत्रासुर बाल्यकाल से ही शिव भक्त रहा है। अतः हे इन्द्र! तुम बृहस्पति प्रदोष व्रत कर शंकर भगवान को प्रसन्न करो।"
देवराज ने गुरूदेव की आज्ञा का पालन कर बृहस्पति प्रदोष व्रत किया। गरू प्रदोष व्रत के प्रताप से इन्द्र ने शीघ्र ही वृत्रासुर पर विजय प्राप्त कर ली और देवलोक में शांति छा गई।
बोलो उमापति शंकर भगवान की जय।
शुक्र त्रयोदशी प्रदोष व्रत
सूत जी बोले, "अभीष्ट सिद्धि की कामना यदि हो हृदय विचार। धर्म अर्थ कामादि सुख मिले पदास्थ चार।"
व्रत कथा
प्राचीनकाल की बात है, एक नगर में तीन मित्र रहते थे: एक राजकुमार, दूसरा ब्राह्मण कुमार और तीसरा धनिक पुत्र। राजकुमार और ब्राह्मण कुमार का विवाह हो चुका था, जबकि धनिक पुत्र का विवाह हुआ था, लेकिन गौना शेष था। एक दिन तीनों मित्र स्त्रियों की चर्चा कर रहे थे। ब्राह्मण कुमार ने स्त्रियों की प्रशंसा करते हुए कहा, "नारीहीन घर भूतों का डेरा होता है।" धनिक पुत्र ने यह सुना और तुरंत ही अपनी पत्नी को लाने का निर्णय लिया। मातापिता ने समझाया कि अभी शुक्र देवता डूबे हुए हैं, इस समय बहू-बेटियों को उनके घर से विदा कराना शुभ नहीं होता। लेकिन धनिक पुत्र ने नहीं सुना और ससुराल पहुंच गया। ससुराल में उसे रोकने की बहुत कोशिश की गई, लेकिन उसने जिद नहीं छोड़ी। परिणामस्वरूप, माता-पिता को विवश होकर अपनी कन्या की विदाई करनी पड़ी।
ससुराल से विदा हो पतिपत्नी नगर से बाहर निकले ही थे कि उनकी बैलगाड़ी का पहिया अलग हो गया और एक बैल की टांग टूट गई। दोनों को काफी चोटें आईं, फिर भी वे आगे बढ़ते रहे। कुछ दूर जाने पर उनकी भेंट डाकुओं से हो गई, जो धन और सामान लूटकर भाग गए। दोनों रोते-पीटते घर पहुंचे। वहां धनिक पुत्र को सांप ने डस लिया। उसके पिता ने वैद्य को बुलवाया, और वैद्य ने यह घोषणा की कि धनिक पुत्र तीन दिन में मर जाएगा।
जब ब्राह्मण कुमार को यह समाचार मिला, तो वह तुरंत आए। उन्होंने माता-पिता को शुक्र प्रदोष व्रत करने की सलाह दी और कहा, "इन्हें पत्नी सहित ससुराल भेज दें, क्योंकि यह सारी बाधाएं इसलिए आई हैं क्योंकि आपके पुत्र ने शुक्रास्त में पत्नी को विदा करा लिया है। यदि वह वहां पहुंच जाए, तो वह बच जाएगा।"
ब्राह्मण कुमार की बातों को समझकर धनिक ने वही किया। ससुराल पहुंचते ही धनिक कुमार की हालत ठीक होने लगी। शुक्र प्रदोष व्रत के प्रभाव से सभी घोर कष्ट टल गए।
शनि त्रयोदशी प्रदोष व्रत
सूत जी बोले, "पुत्र कामना हेतु यदि हो विचार शुभ शुद्ध। शनि प्रदोष व्रत परायण करे सुभक्त विघुद्ध।"
व्रत कथा
प्राचीन समय की बात है, एक नगर में सेठ धनदौलत और वैभव से सम्पन्न था। वह अत्यन्त दयालु था। उसके यहां से कभी कोई भी खाली हाथ नहीं लौटता था। वह सभी को जी भरकर दान-दक्षिणा देता था, लेकिन दूसरों को सुखी देखने वाले सेठ और उसकी पत्नी स्वयं काफी दुखी थे। दुःख का कारण था उनके संतान का न होना। संतानहीनता के कारण दोनों घुलकर जा रहे थे।
एक दिन उन्होंने तीर्थयात्रा पर जाने का निर्णय लिया और अपने कामकाज सेवकों को सौंपकर चल पड़े। अभी वे नगर के बाहर ही निकले थे कि उन्हें एक विशाल वृक्ष के नीचे समाधि लगाए हुए एक तेजस्वी साधु दिखाई पड़े। दोनों ने सोचा कि साधु महाराज से आशीर्वाद लेकर आगे की यात्रा शुरू की जाए। पतिपत्नी दोनों समाधिलीन साधु के सामने हाथ जोड़कर बैठ गए और उनकी समाधि टूटने की प्रतीक्षा करने लगे। सुबह से शाम और फिर रात हो गई, लेकिन साधु की समाधि नहीं टूटी।
सेठ पतिपत्नी धैर्यपूर्वक हाथ जोड़कर बैठ रहे। अंततः अगले दिन प्रातः काल साधु समाधि से उठे। सेठ पतिपत्नी को देख मंद मंद मुस्कराए और आशीर्वाद स्वरूप हाथ उठाकर बोले, "मैं तुम्हारे अन्तर्मन की कथा भांप गया हूं, वत्स। मैं तुम्हारे धैर्य और भक्तिभाव से अत्यन्त प्रसन्न हूं।"
साधु ने संतान प्राप्ति के लिए उन्हें शनि प्रदोष व्रत करने की विधि समझाई और शंकर भगवान की निम्न वंदना बताई:
हे रूद्रदेव शिव नमस्कार।
शिव शंकर जगगुरू नमस्कार।
हे नीलकंठ सुर नमस्कार।
शशि मौलि चन्द्र सुख नमस्कार।
हे उमाकान्त सुधि नमस्कार। उग्रत्व रूप मन नमस्कार।
ईशान ईघ प्रभु नमस्कार। विश्वेश्वर प्रभु शिव प्रभु नमस्कार।
तीर्थ यात्रा के बाद दोनों वापस घर लौट आए और नियमपूर्वक शनि प्रदोष का व्रत करने लगे। कालांतर में सेठ की पत्नी ने एक सुंदर पुत्र को जन्म दिया।
Post a Comment