Hindi Typing Test - सोमवार व्रतकथा
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एक साहुकार की कथा
एक साहुकार बहुत धनवान था। उसको धनादि किसी बात की कोई कमी नहीं थी। परन्तु पुत्र न होने के कारण वह अत्यन्त दुःखी था। वह इसी चिन्ता में रात दिन रहता था और इसलिये वह पुत्र की कामना के लिए प्रति सोमवार को शिवजी का व्रत और पूजन किया करता था। उसके इस भक्तिभाव को देखकर एक समय श्री पार्वती जी ने शिवजी महाराज से कहा कि हे महाराज! यह साहुकार आपका अनन्य भक्त है और सदैव आपका व्रत और पूजन बड़ी श्रद्धा से करता है अतः इसकी मनोकामना पूर्ण करनी चाहिए।
शिवजी ने कहा पार्वती जी! यह संसार कर्मक्षेत्र है, जैसे किसान खेत में जैसा बीज बोता है वैसा ही फल काटता है। उसी तरह इस संसार में जो कर्म करते है वैसा ही फल भोगते हैं। पार्वती के अत्यन्त आग्रह से कहा - महाराज! जब यह आपका ऐसा भक्त है यदि इसको किसी प्रकार कोई दुःख है तो उसको अवघ्य दूर करना चाहिए, क्योंकि आप तो सदैव भक्तों पर दया करते है, उनके दुःखो को दूर करते है, यदि आप ऐसा नहीं करेगें तो मनुष्य क्यों कर आपकी सेवा, व्रत पूजन करेंगे।
पार्वती जी का ऐसा आग्रह देख शिवजी प्रसन्न होकर कहने लगे। हे पार्वती इसके भाग्य में कोई पुत्र नहीं है इसी पुत्र की चिन्ता से यह बहुत दुःखी रहता है। इसके भाग्य में पुत्र न होने पर भी मैं इसको पुत्र प्राप्ति का वर देता हूं, परंतु वह पुत्र केवल 12 वर्ष तक ही जीवित रहेगा। इसके बाद वह मृत्यु को प्राप्त होगा। इससे अधिक मैं और कुछ इसके लिए नहीं कर सकता।
यह सब बात साहुकार सुन रहा था। इससे उसको न कुछ प्रसन्नता हुई न कुछ दुःख हुआ, वह पूर्ववत् वैसे ही शिवजी महाराज का सोमवार का व्रत और पूजन करता रहा। कुछ समय व्यतीत हो जाने पर साहुकार की स्त्री गर्भवती हुई। और उसके गर्भ से एक सुन्दर पुत्र की प्राप्ति हुई। साहुकार के घर में बहुत खुशियाँ मनाई गई, परंतु साहुकार ने उसको केवल 11 वर्ष की आयु जानकर अधिक प्रसन्नता प्रकट नहीं की और न ही किसी को यह भेद बताया।
जब वह 11 वर्ष का हो गया तो उसकी मां ने उसके पिता से उसके विवाह आदि के लिए कहा परन्तु वह साहुकार कहने लगा "मैं अभी इसका विवाह नहीं करूंगा और इसे काघी जी पढने के लिये भेजूंगा।" फिर उस साहूकार ने अपने साले अर्थात् बालक के मामा को बुलाया और उसको बहुत सा धन देकर कहा - "तुम इस बालक को काघी जी पढ़ने के लिए ले जाओ और रास्ते में जिस भी जगह जाओ वहां यज्ञ कराते, दान देते और ब्राह्मणों को भोजन कराते जाओ।" इस प्रकार दोनों मामा-भानजे यज्ञ कराते और ब्राह्मणों को भोजन कराते जा रहे थे।
रास्ते में एक शहर पड़ा। उस शहर की कन्या का विवाह था और दूसरे राजा लड़का जो बारात लेकर आया था वह एक आंख से काना था। लड़के के पिता को इस बात की बड़ी चिंता थी कि कहीं वर को देखकर कन्या के माता-पिता विवाह में किसी प्रकार की अड़चन न डाल दें। इस कारण जब उसने अति सुंदर सेठ के लड़के को देखा तो मन में विचार आया कि क्यों न दरवाजे के समय इस लड़के को वर के काम में ले लिया जाए। ऐसा विचार करके राजा ने उस लड़के और उसके मामा से कहा तो वह राजी हो गए और साहूकार के लड़के को स्नान कराकर, वर के कपड़े पहनाकर तथा घोड़ी पर चढ़ाकर दरवाजे पर ले आए और बड़ी शांति से सब कार्य हो गए।
अब वर के पिता ने सोचा कि यदि विवाह कार्य भी इसी लड़के के साथ करा दिया जाए तो क्या बुराई है। ऐसा विचार करके उसने उसके मामा से कहा कि यदि आप फेरों और कन्यादान का काम भी करा दे तो आपकी बड़ी घपा होगी, हम इसके बदले आपको बहुत सा धन देंगे। उन्होंने स्वीकार कर लिया और विवाह कार्य बहुत अच्छी तरह से हो गया। परंतु जब लड़का जाने लगा तो उसने राजकुमारी के पल्ले पर लिख दिया कि "तेरा विवाह तो मेरे साथ हुआ है परंतु जिस लड़के के साथ तुमको भेजेंगे वह एक आंख से काना है। मैं तो काघी जी पढ़ने जा रहा हूं।"
उस राजकुमारी ने अपनी चुनरी पर ऐसा लिखा हुआ पाया तो उसने राजकुमार के साथ जाने से इनकार कर दिया और कहा कि "यह मेरा पति नहीं है। मेरा विवाह इसके साथ नहीं हुआ। वह तो काघी जी पढ़ने गया है।" कुमारी के माता-पिता ने अपनी कन्या को विदा नहीं किया और बारात वापस चली गई। उधर सेठ का लड़का और उसका मामा काघी जी पहुंच गए। वहां जाकर उन्होंने यज्ञ कराना और लड़के को पढ़ाना शुरू कर दिया।
जब लड़के की आयु बारह वर्ष की हो गई तब एक दिन उन्होंने यज्ञ रच रखा था। कि उस लड़के ने अपने मामा से कहा - "मामा आज मेरी तबीयत कुछ ठीक नहीं है।" मामा ने कहा कि "अंदर जाकर लेट जाओ।" लड़का अंदर जाकर सो गया और उसके प्राण निकल गए। जब उसके मामा ने आकर देखा कि वह मुर्दा पड़ा है तो उसे बड़ा दुःख हुआ और उसने सोचा "मैं अभी रोना-पीटना मचा दूंगा तो यज्ञ का कार्य अधूरा रह जाएगा।" अतः उसने जल्दी से यज्ञ का कार्य समाप्त कर ब्राह्मणों के घर जाने के पश्चात रोना-पीटना प्रारंभ किया।
संयोगवश उस समय शिवजी महाराज और पार्वती जी उधर से जा रहे थे। जब उन्होंने रोने-पीटने की आवाज़ सुनी तो पार्वती जी शिवजी को आग्रह कर उसके पास ले गई और सुंदर सेठ के लड़के को मरा हुआ देखकर कहने लगी "ये तो उसी सेठ का लड़का है जो आपके वरदान से पैदा हुआ था।" शिवजी ने कहा - "हे पार्वती! इसकी आयु इतनी ही थी, जो कि यह भोग चुका।" पार्वती जी ने अत्यन्त आग्रह से कहा "महाराज घपा करके इस बालक को और आयु दो, नहीं तो इसके माता-पिता तड़प तड़प कर मर जाएंगे।"
पार्वती जी के इस प्रकार बार-बार आग्रह करने पर शिवजी ने उसे वरदान दिया और शिवजी महाराज की घपा से लड़का जीवित हो गया। शिवजी-पार्वती कैलाश चले गए। तब वह लड़का और उसका मामा उसी प्रकार यज्ञ कराते हुए अपने घर की तरफ चल पड़े और रास्ते में उसी शहर में आए जहां पर उसका विवाह हुआ था। वहां पर आकर जब उन्होंने यज्ञ आरंभ किया तो लड़के के श्वसुर ने उसे पहचान लिया और अपने महल में लाकर बड़ी खातिर की, साथ ही बहुत सारा धन तथा दासियों सहित बड़े आदर-सत्कार के साथ अपनी लड़की और जवाई को विदा किया।
जब वह अपने शहर के निकट आए तो उसके मामा ने कहा कि पहले मैं तुम्हारे घर जाकर खबर कर आता हूं। उस समय उसके माता-पिता अपने घर की छत पर बैठे हुए थे और उन्होंने यह प्रण कर रखा था कि "यदि हमारा पुत्र सकुशल घर आएगा तो हम खुशी-खुशी नीचे उतर आएंगे, नहीं तो छत से गिरकर अपने प्राण दे देंगे।" इतने में उस लड़के के मामा ने आकर यह सारा समाचार दिया कि "आपका पुत्र आ गया है," परन्तु उनको विश्वास नहीं आया। तब उसके मामा ने शपथपूर्वक कहा कि "आपका पुत्र अपनी स्त्री तथा बहुत सारा धन लेकर आया है।" तो उस सेठ ने बड़े आनंद के साथ उनका स्वागत किया और बड़ी प्रसन्नता के साथ रहने लगे।
निष्कर्ष
इसी प्रकार जो कोई भी सोमवार का व्रत धारण करता है अथवा इस कथा को पढ़ता या सुनता है, उसके दुःख दूर होकर उसकी समस्त मनोकामनाएं पूर्ण होती हैं। इससे लोक में नाना प्रकार के सुख भोगकर अंत में सदाशिव लोक की प्राप्ति हुआ करती है।
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