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Hindi Typing Test - ऋषि पंचमी व्रत कथा

Hindi Typing Test - ऋषि पंचमी व्रत कथा

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ऋषि पंचमी व्रत

भाद्र भादों शुक्ल पंचमी के व्रत को ऋषि पंचमी व्रत कहते है। इसको स्त्री-पुरूष सभी पापों की निवृघि के लिये करते हैं। नियमपूर्वक व्रत तथा पूजन करने से सर्वसुख, आरोग्यता, समृद्धि, यघ, धन-धान्य, संतान, वैभव तथा विजय की प्राप्ति होती है और अंत में मोक्ष मिलता है।

व्रत का विधान

व्रत वाले दिन ब्रह्म मुहुर्त में उठकर किसी नदी या जलाघय में स्नान करें। जब स्नान करके पवित्र हो जाएं तो रेघमी धोती वस्त्र धारण करें। मन में व्रत का निघ्चय करके आंगन में बेदी बनाकर शुद्ध मन से पंचामृत तैयार करें। तब अरूंधित सहित सप्त ऋषियों को उस पंचामृत में स्नान कराएं फिर शुद्ध वस्त्र से उनको सुखाकर उनके आसन पर विराजमान करें। तब सप्तऋर्षियों के निमित्त चंदन, अगर, कपूर आदि की गंध दें, फूल चढ़ाएं और उनके सम्मुख दीपक जलाकर हाथ जोडकर उनसे प्रार्थना करें कि-आप मुझ पर घ्पा करें और मेरे द्वारा निवेदित इस पूजा को स्वीकार करें। भगवान को भोग लगाकर प्रसाद समस्त बंधु-बाधव तथा कथा सुनने वालों में बांटे।

ऋषि पंचमी की कथा

एक समय राजा सिताघ्व धर्म का अर्थ जानने की इच्छा से ब्रह्मा जी के समीप गए और उनके चरणों में शीघ नवाकर बोले - हे आदिदेव ! आप समस्त धर्मो के प्रर्वतक और गूढ़ धर्मो को जानने वाले हो। आपके मुख से धर्म चर्चा श्रवण कर मन को बहुत शांति मिलती है। भगवान के चरण कमलों मे प्रीती बढ़ती है। वैसे तो आपने मुझे नाना प्रकार के व्रतों के विषय में उपदेघ दिए है। अब मैं आपके मुखारविंद से उस श्रेष्ठ व्रत को सुनने की अभिलाषा रखता हूं, जिसके करने से प्राणी के समस्त पापों का नाघ हो जाता है।

राजा के इन वचनों को सुनकर ब्रह्माजी ने कहा - हे नृप श्रेष्ठ ! तुम्हारा प्रघ्न अति उघम और धर्म में प्रीती उपजाने वाला है। मैं तुमको समस्त पापों को नष्ट करने वाला सर्वोघम व्रत सुनाता हूं। यह व्रत ऋषिपंचमी के नाम से विख्यात हैं। इस व्रत को ग्रहण करने वाला प्राणी अपने समस्त पापों से सहज ही छुटकारा पा लेता है। उसे नरक में कदापि नहीं जाना पड़ता है। इस व्रत का एक अति प्राचीन इतिहास और भी है।

उस इतिहास का मैं तुम्हारे सम्मुख वर्णन करता हूं। एक समय की बात है कि विदर्भ देघ में उघंक नामक ब्राह्मणी अपनी पतिव्रता पत्नी के साथ निवास किया करता था। उस ब्राह्मणी दम्पत्ति के एक पुत्र का नाम सुविभूषण था। वह कुघाग्र और तीक्ष्ण बुद्धि वाला था। उसने अल्प काल में ही चारों वेदों को पढ़ लिया। हे राजन् ! उत्तंक ने अपनी पत्नी के परामर्घ से अपनी पुत्री का विवाह एक सुयोग्य ब्राह्मणी कुमार के साथ कर दिया। किंतु भगवान की गति कुछ ऐसी थी कि कन्या विवाह के एक माह पश्चात् ही विधवा हो गई।

अतः विधवा होने के पश्चात् वह कन्या अपने धर्म का पालन करती हुई अपने पिता के यहां रहकर ही अपने समय को व्यतीत करने लगी। विधवा कन्या के दुःख से दुःखी होकर उत्तंक अपने घरबार अपने पुत्र को सौंप कर अपनी कन्या और पत्नी को लेकर गंगा जी किनारे चला गया और वहां आश्रम बनाकर वेदों का पठन-पाठन करने लगा। उसके पास कुछ ब्राह्मणी भी वेद पढ़ने के लिये रहने लगे। कन्या भी अपने धर्म का पालन करती हुई अपना समय व्यतीत कर रही थी। वह नित्य प्रति मन लगाकर माता-पिता की सेवा करती थी।

ऋषि पंचमी व्रत की कथा

एक दिन समस्त कार्यो से थककर वह एक घिला पर आराम करने के लिए लेट गई। थकान के कारण उसको अपने शरीर की सुध भी न रही। भगवान की गति से अर्द्धरात्रि के समय उसके शरीर में कीड़े उत्पन्न हो गये। घिष्यों ने जब उस कन्या के शरीर पर कीड़े को देखा तो उन्होंने जाकर अपने गुरू की पत्नी को बताया। कन्या के शरीर में कीड़े पड़ जाने की बात सुनकर ब्राह्मणी कातर स्वर में विलाप करती हुई उसी घिला के पास पहुंची जहां उसकी कन्या बेसुध पड़ी थी। उसके शरीर पर कीड़े को देखकर वह बहुत दुःखी हुई और विलाप करते-करते वह ब्राह्मणी अचेत हो गई।

जब उसे होश आया तो उसने अपनी कन्या को गोदी में उठाया और उसे अपने पति उत्तंक के सामने ले जाकर रख दिया। कन्या की दशा को देखकर ब्राह्मणी ने अपने पति से कहा - हे स्वामी! आप कृपा कर मुझे यह बताएं कि मेरी इस साध्वी कन्या की दुर्दशा किस दुष्कर्म के कारण हुई है?

अपनी पत्नी की बातों को सुनकर उत्तंक मुनि थोड़ी देर के लिए शांत होकर हृदय में भगवान का ध्यान करने लगे। उन्होंने अपनी ज्ञान-चक्षु के द्वारा कन्या के पूर्व जन्म के समस्त वृत्तांतों को जान लिया। तब वे अपने नेत्रों को खोलकर बोले - हे प्रिये! यह कन्या अपने पहले जन्म में एक ब्राह्मणी थी। उस समय इसने रजस्वला होते हुए भी एक समय घर के घड़े आदि बर्तनों को छू लिया था। उसी पाप के कारण इसके शरीर में कीड़े पड़ गए हैं। इसने शुद्ध होने के बाद अपनी सखियों के साथ ऋषि पंचमी व्रत को देखकर भी उसका आदर नहीं किया था। व्रत के दर्शन के प्रभाव से तो इस जन्म में इसको उत्तम ब्राह्मणी कुल प्राप्त हुआ, परंतु व्रत का तिरस्कार करने के कारण इसके शरीर में कीड़े पड़ गये हैं।

मुनि के वचनों को सुनकर उसकी पत्नी बोली - हे स्वामी! जिस व्रत के दर्शन मात्र से आपके समान ब्रतेजोमय उत्तम कुल में इसका जन्म हुआ और जिसका तिरस्कार करने से शरीर कीड़ो से भर गया, उस महान आश्चर्यजनक व्रत को आप कृपा करके मुझे सुनायें।

उत्तंक प्रसन्न होकर बोले - हे प्रिये! यह व्रत समस्त व्रतों में उत्तम है। इसके प्रभाव से समस्त पाप नष्ट हो जाते हैं। इस व्रत को धारण करने वाला निश्चित ही दैहिक, भौतिक और वैदिक तीनों प्रकार के कष्टों से छूट जाता है। व्रत को धारण करके स्त्रियां सौभाग्य को प्राप्त करती हैं। यह महान व्रत भादों मास के शुक्लपक्ष में पंचमी को होता है। इस व्रत के प्रभाव से उसे पूर्व जन्म का स्मरण रहता है।

भविष्योत्तर पुराण की ऋषि पंचमी कथा

युधिष्ठिर ने प्रशन किया - हे देवेश! मैंने आपके श्रीमुख से अनेकों व्रतों को श्रवण किया है। अब आप कृपा करके पापों को नष्ट करने वाला कोई उत्तम व्रत सुनाएं।

राजा के वचनों को सुनकर श्री कृष्ण बोले - हे राजेन्द्र! अब मैं तुमको ऋषि पंचमी का उत्तम व्रत सुनाता हूं, जिसको धारण करने से स्त्री समस्त पापों से छुटकारा प्राप्त कर लेती है। हे नृपोत्तम! पूर्व समय में वृत्रासुर का वध करने के कारण इंद्र को ब्रहत्या का महान् पाप लगा था। तब ब्रह्माजी ने कृपा करके इंद्र के उस पाप को चार स्थानों पर बांट दिया। पहला अग्नि की ज्वाला में, दूसरा नदियों के बरसाती जल में, तीसरा पर्वतों में और चौथा स्त्री के रज में। उस रजस्वला धर्म में जाने-अनजाने उससे जो भी पाप हो जाते हैं, उनकी शुद्धि के लिए ऋषि पंचमी का व्रत समान रूप से चारों वर्णों की स्त्रियों को करना चाहिए।

इसी विषय में एक प्राचीन कथा का वर्णन करता हूं। सतयुग में विदर्भ नगरी में स्येनजित नामक राजा हुए। वे प्रजा का पुत्रवत पालन करते थे। उनका आचरण ऋषि के समान था। उनके राज्य में समस्त वेदों के ज्ञाता, समस्त जीवों का उपकार करने वाला सुमित्र नामक एक घ्षक ब्राह्मणी निवास करता था। उसकी स्त्री पतिव्रता थी। ब्राह्मणी के अनेक नौकर-चाकर भी थे। एक समय वर्षाकाल में जब वह साध्वी खेतों के कामों में लगी हुई थी, तब वह रजस्वला हो गई।

हे राजन्! उसे अपने रजस्वला होने का आभास हो गया किंतु फिर भी वह घर-गृहस्थी के कार्यों में लगी रही। कुछ समय पश्चात् वे दोनों, स्त्री और पुरुष, अपनी-अपनी आयु भोगकर मृत्यु को प्राप्त हुए। जयश्री अपने ऋतुदोष के कारण कुतिया बनी और सुमित्र को रजस्वला स्त्री के सम्पर्क में रहने के कारण बैल की योनी प्राप्त हुई। क्योंकि ऋतु दोष के अतिरिक्त इन दोनों का और कोई अपराध नहीं था, इस कारण इन दोनों को अपने पूर्वजन्म का समस्त विवरण याद रहा।

वे दोनों कुतिया और बैल के रूप में अपने पुत्र सुमित्र के यहां रहने लगे। सुमित्र धर्मात्मा था और अतिथियों का पूर्ण सत्कार करता था। अपने पिता के श्राद्ध के दिन उसने अपने ब्राह्मण जिमाने के लिए नाना प्रकार के भोजन बनवाए। उसकी पत्नी किसी काम से बाहर गई हुई थी कि एक सर्प ने आकर रसोई के बर्तनों में विष उड़ेल दिया। सुमित्र की मां कुतिया के रूप में बैठी हुई यह सब देख रही थी। अतः उसने अपने पुत्र को ब्राह्मण हत्यां के पाप से बचाने की इच्छा से उस बर्तन को स्पर्श कर लिया।

ऋषि पंचमी की कथा का विस्तार

सुमित्र की पत्नी से कुतिया का यह कृत्य सहा नहीं गया और उसने एक जलती हुई लकड़ी कुतिया को मारी। वह प्रतिदिन रसोई में जो जूठन आदि शेष रहती थी, उसे कुतिया के सामने डाल दिया करती थी। किंतु घेध के कारण वह भी उसे नहीं दी। तब रात्रि के समय भूख के कारण व्याकुल होकर वह कुतिया अपने पूर्व पति के पास आकर बोली - हे नाथ! आज मैं भूख से मरी जा रही हूँ। वैसे तो रोज ही मेरा पुत्र खाने को देता था, मगर आज उसने कुछ नहीं दिया। मैंने सांप के विष वाले खीर के बर्तन को ब्राह्मण हत्या के भय से छूकर भ्रष्ट कर दिया था। इस कारण बहू ने मारा और खाने को भी नहीं दिया है।

तब बैल ने कहा - हे भद्रे! तेरे ही पापों के कारण मैं भी इस योनि में आकर पड़ा हूँ। बोझा ढोते-ढोते मेरी कमर टूट गई है। आज मैं दिन भर खेत जोतता रहा। मेरे पुत्र ने आज मुझे भी भोजन नहीं दिया और घर से मारा भी खूब है। मुझे कष्ट देकर श्राद्ध को व्यर्थ ही किया है।

अपने माता-पिता की इन बातों को उनके पुत्र सुमित ने सुन लिया। उसने उसी समय जाकर उन्हें भरपेट भोजन कराया और उनके दुःख से दुःखी होकर वन में जाकर उसने ऋषियों से पूछा - हे स्वामी! मेरे माता-पिता किन कर्मों के कारण इस योनि को प्राप्त हुए और किस प्रकार उनसे छुटकारा पा सकते हैं?

सुमित के उन वचनों को श्रवण कर सर्वतपा नामक महर्षि दया करके बोले - पूर्व जन्म में तुम्हारी माता ने अपने उच्छृंखल स्वभाव के कारण रजस्वला होते हुए भी घर-गृहस्थी की समस्त वस्तुओं को स्पर्श किया था और तुम्हारे पिता ने उसे स्पर्श किया था। इसी कारण वे कुतिया और बैल की योनि को प्राप्त हुए हैं। तुम उनकी मुक्ति के लिए ऋषि पंचमी का व्रत धारण करो।

श्री कृष्ण बोले - हे राजन्! महर्षि सर्वतपा के इन वचनों को श्रवण करके सुमित्र अपने घर लौट आया और ऋषि पंचमी का दिन आने पर उसने अपनी पत्नी सहित उस व्रत को धारण किया और उसके पुण्य को अपने माता-पिता को दे दिया। व्रत के प्रभाव से उसके माता-पिता दोनों ही पशु योनियों से मुक्त हो गए और स्वर्ग को चले गए। जो स्त्री इस व्रत को धारण करती है, वह समस्त सुखों को पाती है।

ऋषि पूजन की आरती

जय जय ऋषिराजा, प्रभु जय जय ऋषिराजा।

ऋषि संप्रदाय की आरती

देव समाजात मुनि, कृत सुरगया काजा।
जय दध्यगाथर्वण, भरद्वाज गौतम।
जय श्रृंगी, पाराघर अगस्त्य मुनि सत्तम।।1।।

वघिष्ठ, विघ्वामित्र, गिर, अत्री जय जय।
कघ्यप भृगुप्रभृति जय, जय कृप तप संचय।।।2।।

वेद मंत्र दृष्टावन, सबका भला किया।
सब जनता को तुमने वैदिक ज्ञान दिया।।।3।।

सब ब्राह्मणी जनता के मूल पुरूष स्वामी।
ऋषि संतति, हमको ज्ञानी हो सत्पथगामी।।।4।।

हम में प्रभु आस्तिकता आप शीघ्र भर दो।
घिक्षित सारे नर हों, यह हमको वर दो।।।5।।

‘धरणीधर‘ कृत ऋषिजन की आरती जो गावे।
वह नर मुनिजन, सुख सम्पत्ति पावें।

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